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काश! यह तिरंगा और ऊँचा फहराते / दिनेश देवघरिया

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स्वतंत्रता दिवस
कॉलेज जल्द जाना था।
पर, हाय सभी मुसीबतों को आज ही आना था।
पिछ्ले 38 मिनटों से ट्रेन
एक ही स्टेशन पर खड़ी थी,
शायद आगे लाईन में कुछ गड़बड़ी थी।
स्पीच तैयार कर रखी थी,
पिछली तीन रातों से,
अगर वक्‍त पर न पहुँचा,
तो सर्वश्रेष्ठ वक्‍ता का पुरस्कार तो गया मेरे हाथों से।
भाषण भी कमाल था
मैंने शब्दों से अपने भारत को खूब सजाया था।
कलम के जादू से अपने देश को हर देश से अनोखा बनाया था।
खैर!
तब तक एक उत्तम विचार दिमाग़ में आया।
क्यों व्यर्थ चिंता में अमूल्य समय बर्बाद करूँ ?
क्यों न दो चार बार भाषण मन ही मन पढ़ूँ?
दो-चार बार के चक्कर में
21 बार पढ़ा,
तब जाके चक्का आगे बढ़ा
थोड़ी ही देर बाद,
एक मधुर तान कानों में आई,
जैसे किसी ने देश-भक्ति की वीणा बजायी।
मुड़कर देखा तो एक भिखारिन
अपने बच्‍चे के साथ
भीख माँगती हुई आ रही थी।
"मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती"
हॉ, यही गीत, यही गीत
वह गा रही थी।
मेरे तो होश उड़ गए ।
मानो, मेरे भाषण की हर पंक्ति पर
प्रश्‍न चिह्न लग गए?
वह स्वतंत्रता दिवस मना रही थी,
या गाने का अर्थ समझ नहीं पा रही थी,
या फिर स्वतंत्र भारत का मज़ाक उड़ा रही थी?‍
मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था,
अपने ही सवालों के जाल में
उलझता जा रहा था।
किसी ने दुत्कारा,
किसी ने फटकारा,
किसी ने कटोरे में रुपया,
किसी ने अठन्‍नी गिरायी।
धीरे-धीरे वह मुझ तक आयी।
मैले-कुचैले कपड़े, भद्‍दा सा शरीर।
हाथों में कटोरा, आँखों में उम्मीद।
मुझे उसके हालात पर तरस आया।
मैंनें एक दस का नोट
उसके कटोरे में गिराया,
पर मेरे सामने बैठे एक बूढ़े ने जो किया
वह देख कर मैं दंग रह गया।
उसने भिखारन के बच्‍चे को गोद में उठाया
अपने बगल की सीट पर बैठाया।
एक टॉफ़ी हाथ में दी और
प्यार से उसके सिर पर हाथ फिराया।
बच्‍चा मुस्कुराया,
भिखारिन की ऑंखों में खुशियों के आँसू आ गए।
जैसे भीख में आज सारा संसार मिल गया।
मुझे लगा,
मेरे दस का नोट 50 पैसे की टॉफ़ी से हार गया।
काश !
हम भी प्यार का मोल समझ पाते,
हर गिरे इंसान को गले लगा पाते,
इंसान को इंसान समझ,
उन्हें जिंदा होने का एहसास दिला पाते,
तो आज
गॉंधी के सपनों से भी ऊँचा भारत बना पाते।
ऐसे ही सवालों के भॅंवर में मैं खो चूका था।
ट्रेन रुकी, घड़ी देखी
तो पूरे सवा घंटे लेट हो चुका था।
दौड़ता हुआ, कॉलेज पहुंचा, पर कार्यक्रम समाप्त।
कैम्पस में केवल तिरंगा लहलहा रहा था।
तिरंगे को देख बार-बार
ये सवाल दिल में आ रहा था।
काश!
आजादी के छह दशक बाद भी
हम इंसान को इंसान से अलग करने वाली हरेक दीवार गिरा पाते।
हर इंसान में खुदा और भगवान देख पाते।
गीता और कुरान से पहले
प्रेम के ढाई अक्षर की व्यापकता को समझ पाते।
तो आज यह तिरंगा
और ऊँचा...और ऊँचा...और ऊँचा फहराते।
पर काश! यह तिरंगा और ऊँचा फहराते।