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काश! / रश्मि विभा त्रिपाठी

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मैं जली रोज
चराग़– सी
शाम के गहराने से लेकर
सुबह के आने तक
करना चाहो
तो करना मेरी खोज
किसी लौ में
जिसमें
मैं अपनी रौ में
मचलती दिखाई दूँगी

मैं तपी रोज
सूरज– सी
किसी शजर की छाँव कहाँ मिली
तुम्हारी इच्छा है दिली
ये जानने की
कि मैंने कितनी तपिश झेली
तो कर देना
खुले आसमान के नीचे
पल भर को
अपनी हथेली
मुँह से आह निकल जाएगी
धूप इस कदर सताएगी

मैं गली रोज
कागज की कश्ती– सी
बारिश ने मुझसे
बदला लिया
मैंने भला क्या गुनाह किया?

मैं पिघली रोज
मोम– सी
हसरतों की आग
मुझे बूँद- बूँद टपकाती रही
मेरे बुझने का अरमाँ लिए
मुझे भटकाती रही

तुम फूँकना चाहो मुझे
तो अब मुझमें क्या बचा है
क्यों ज़िन्दा हूँ मैं
मेरी आती- जाती धड़कन से ही पूछो
जिसने दिल की किरचियाँ होने के बाद भी
धड़कने का ये खेल रचा है

मैं खिली रोज
फूल– सी
मगर मेरी ख़ुशबू में खोने वाला
मुझे सँजोने वाला
कोई नहीं था
मुझे मसल दिया गया
मेरे जवाँ होने से पहले ही
जब मैं कली से फूल बन रही थी
तुम सींचना चाहो मुझे
तो सुनो
जहाँ मैं उगी थी, खिली थी,
वहाँ अब सहरा है
मेरा सदमा
बहुत गहरा है
खुद के लुटने का
हर किसी ने तोड़कर मुझको
जब तक जी चाहा
मसला
और रास्ते में फेंक दिया
मत पूछो
ये काँटों भरा सफ़र
मैंने कैसे तय किया?

अब

तुम बनना चाहते हो
वही शजर
जिसके अचानक टूट जाने से
बरसों तक
मैंने धूप के सफर में
अपने पाँव जलाए
बदन झुलसाया
तुमको मुझपर
न जाने क्या रहम आया
कि करना चाहते हो
छाँव मुझपे
ताकि तपिश का चल न सके
दाँव मुझपे

तुम बनना चाहते हो
हवा या बादल
जो गल चुकी कश्ती को
फिर से हू- ब- हू
वैसा कर दे
कि फिर
मैं बच्चों– सी चहक उठूँ
मुझमें ऐसी उमंग भर दे

तुम बनना चाहते हो
बहार
ताकि इस बार
पतझड़ न आए
तुम्हारे होते
मुझको वीरानी छू न पाए
तुम्हारे अहसास का फूल
पल- पल
मुझको महकाए

तुम बनना चाहते हो
चाँद
जो मेरे कमरे में
रात भर अपनी चाँदनी
मुझपर लुटाए
मैं भी चाहती हूँ
कि
मेरी ज़िन्दगी का मोम
तुम्हारी ठण्डी तासीर से
पिघलकर न टपके
ख़्वाब में भी तुम अपनी बाहों में
मुझे छुपाए रखो
जब ज़रा– सी आँख झपके

काश!
तुम पहले आ जाते
तो मेरी तक़दीर
या जमाने वाले मुझको न सताते।