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काशी की गलियाँ / सुधांशु उपाध्याय

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ये बसरे के मोती छिटके
या जूही की कलियाँ हैं।
कसे हुए दाने हैं भीतर
हरी मटर की फलियाँ हैं।।

अटक-अटक कर किसी मोड़ से
लौट वहीं पर आते हैं,
तिरछे-बाँके मोड़ हमें ये
बार-बार भटकाते हैं
ये आँखों के पतले डोरे
या काशी की गलियाँ हैं।।

रंग बज रहे खुली हवा में
सरसों हिलती है
कहीं-कहीं पर धूप से ज़्यादा
छाया खिलती है
जुड़ी हथेली और बीच में
उड़ती हुई तितलियाँ हैं।।

मौसम की रंगीन इबारत
इन्हें ठीक से पढ़ना है
इंद्रधनुष कुछ नए रंग के
आसमान में गढ़ना है
कसी गाँठ को खोल रहीं फिर
परिचित वही उँगलियाँ हैं।।