काशी है इधर काबा कलीसा भी इधर है
मैं ढूंढ रहा हूँ मिरा महबूब किधर है।
मुझमें तो अभी तक है बची क़ुव्वते-इज़हार
उंगली है मिरे पास अभी ख़ूने-जिगर है।
रह जाये न मंज़िल मिरे पैरों को तरसती
तक़दीर में शायद मिरी ता-उम्र सफ़र है।
आंखें न रहीं मेरी मगर हैं तो वो ही लोग
मुझको है नज़र आता कहां किसकी नज़र है।
एहसास उसी रब की तरह ही है तुम्हारा
आता न नज़र मुझको तू मौजूद मगर है।
कुछ देर फ़क़त और मिरे साथ ही जलना
ऐ शमअ न बुझना की बहुत पास सहर है।
आया है मिरा नाम ज़बां पर जो तुम्हारी
ये मेरे लिए आज बहुत खास ख़बर है।