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काश, तुम जान पाते / आभा पूर्वे
Kavita Kosh से
कौन कहता है कि
रात भर बाहर खड़े
पाले की चुभन से
सिर्फ
तुम ही बिंधते रहे
काश तुम यह भी जान पाते
कि
इस जलती हुई
लकड़ी के पास
तुम्हें
याद करती अकेली बैठी
मैं भी
कितनी सर्द-सर्द
होती रही, होती रही ।