काश ऐसा होता / संतोष श्रीवास्तव
काश 
मन आदी न होता 
उन सुविधाओं का 
जिनकी मैं 
गुलामी करती हूँ 
थोड़ा-सा सुख 
पाने की कोशिश में 
हर बार एक सीढ़ी 
नीचे उतर आती हूँ 
इसी सोच में अक्सर 
रातों को नींद 
बिक जाती है 
हर अप्राकृतिक 
साधन को 
चलाते रहने की ज़रूरत 
तुम्हें और मुझे 
और सब को 
स्कूल, दफ्तर 
और दुकान पहुँचाती है 
काश यह मुझ पर होता 
कि मैं कब सोऊँ, कब उठूँ
कब कैसे 
और कितना चलूँ 
कहाँ ठहरुं, 
कहाँ नहीं ठहरुं
अपने चारों ओर की 
हवा, दीवार, फर्श 
और कीमती सामान की 
सजावट की इच्छा 
यानी दुःख को लगातार 
निमन्त्रण दिया
असंभव को संभव 
बनाने की मेरी जिद्द
यानी दिन रात 
तनाव को आगोश दिया 
काश जो मैं 
लोगों की चिंता 
छोड़ देती उनका धर्म 
केवल अधर्म हो 
तो हर पाप के 
विनाश के लिए 
मेरे संचित पुण्यो 
का खर्च क्यों हो 
काश
जो मैं सब को 
उनके हाल पर छोड़ देती 
और मुझे कुछ भी 
प्रभावित न कर सके 
इस सीमा तक 
अपने आप को 
तोड़ देती 
नसीब के नियमों के 
विरुद्ध क्यों मैं लगातार 
जहाँ निश्चित पराजय है
वहाँ युद्ध लड़ती हूँ
	
	