भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काश कि पहले लिखी जातीं ये कविताएं-3 / प्रियदर्शन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह एक शहर था जो रोज़ नए रूप धरता था
हर गली में कुछ बदल जाता, कुछ नया हो जाता
लेकिन हमारी पहचान उससे इतनी पक्की थी
कि उसके तिलिस्म से बेख़बर हम चलते जाते थे
रास्ते बेलबूटों की तरह पांवों के आगे बिछते जाते
न कहीं खोने का अंदेशा न कुछ छूटने का डर
न कहीं पहुंचने की जल्दी न किसी मंज़िल का पता
वे आश्वस्ति भरे रास्ते कहीं खो गए
वे अपनेपन के घर खंडहर हो गए
हम भी न जाने कहां आ पहुंचे
कभी ख़ुद को पहचानने की कोशिश करते हैं
कभी इस शहर को।

कुछ वह बदल गया
कुछ हम बीत गए।