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काश कि फिर वह सहर आती/ विनय प्रजापति 'नज़र'

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रचना काल: 2004

काश कि फिर वह सहर<ref>सुबह</ref> आती
जब तू मुझको नज़र आती

तेरी आरज़ू है रात-दिन
कभी तो इस रहगुज़र आती

पलकें सूख़ीं राह तकते
तेरी कुछ खोज-ख़बर आती

दरम्याँ रस्मो-रिवाज़ हैं
पर तू फिर भी इधर आती

सहाब<ref>बादल</ref> दिखें हैं दरया पे
और बारिश टूटकर आती

कई मौतें मरकर देखीं
ज़िंदगी तू मेरे दर आती

क़रार मिलता मेरे दिल को
तू ख़ाबों में अगर आती

शब्दार्थ
<references/>