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काश ज़िन्दगी / कल्पना पंत
Kavita Kosh से
आधी रात हो चुकी है
सितारे चांद के अनुशासन में
अपना - अपना अधूरा सपना
बुन रहे हैं
अब जबकि सूरज के कोरोना को भी
छू लिया गया है
तब भी मुझे चांद कन्हैया का चंद खिलौनौ ही नज़र आते हैं
और सूरज के साथ उसका रथ
हालाँकि
अज्ञेय के शब्दों में
बहुत पहले
ये उपमान मैले हो गए हैंं
सोच रही हूँ
हमें खोज लेने है ब्रहमाण्ड के परे कई
और ब्रहमाण्ड
डार्क मैटर
अल्फ़ा सेंटौरी में भी बस्तियाँ बसा लेनी हैं
पर कविता की भाषा में
चाँद को खिलौना ही रहने दें तो कैसा हो
सपनों पर
कल्पनाओं के मासूम सवारों का
थोड़ा सा हक़ बचा रहे
तो बचे रहेंगे सपने
दांत से टूट जाने वाले अखरोट
मुंह में घुल जाते गुड़ सी कविता
औ कविता सी हो काश
ज़िन्दगी !