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काश मैं जीता कुछ दिन / उमेश पंत
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काश मैं जीता कुछ दिन
कुछ न होने के लिए ।
कुछ बनने की शर्त को
प्याज के छिलके के साथ
फेंक आता कूड़ेदान में ।
और निश्चिंत होकर
लगाता,
सूरज में रोशनी का अनुमान ।
रोशनी को भरकर बाल्टी में
उड़ेल आता
दीवार पर बनी
अपनी ही परछाईं पर
और देखता उसे
सुनहला होते ।
हवा के बीच कहीं ढूँढ़ता-फिरता
बेफ़िक्र अपने गुनगुनाए गीत
और सहेज लेता कुछ चुने हुए शब्द
अपनी कविता के लिए ।
मैं आइने में ख़ुद को देखता
कुछ न होते हुए
और बिखर जाता
जैसे हवा बिखर जाती है
मन-माफ़िक ।
आइने में सिमट जाता
ओस की बूँदों-सा
और बदल जाता आईना
दूब के खेत में ।
मेरी आंख बंद होती
मुट्ठी की तरह
और जब हथेली खुलती
वो समय होती
बिखर जाती खेतों में
इफ़रात से ।