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काश ये मुमकिन हो / निधि सक्सेना
Kavita Kosh से
क्या मुमकिन है
कि मैं मुझसे छिटक जाऊँ
तुम तुमसे...
न पैरहन में सिलवटों की फ़िक्र हो
न लम्हों के दायरों का होश रहे...
न गलियारों में कोई साये हों
न मंजिलों की तलाश रहे...
बस तुम रहो और मैं रहूँ
बेसबब और
बेशुमार...