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काश वो इक पल ही आ जाते / साग़र पालमपुरी

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काश वो इक पल ही आ जाते आस के सूने आँगन में

रंग—बिरंगे फूल महकते सोच के सूने उपवन में


सूनी धरती पर शायद फिर आई है रुत फूलों की

खेतों —खेतों सरसों फूली, सिम्बल फूले वन—वन में


धरी रही पूजा की थाली व्यर्थ मेरा श्रृंगार गया

वे प्रीतम नहीं लौट के आए बिछुड़े थे जो सावन में


शहनाई के स्वर हैं घायल गीतों में संगीत नहीं

पहली—सी वह बात कहाँ है अब पायल की झन—झन में


सपनों के जो गाँव बसे थे आँख खुली तो उजड़ गए

पिघल गए अंतर—ज्वाला से ढले बदन जो कंचन में


जाने कितना और है बाक़ी जीवन का बनवास अभी

मन का पंछी बँधता जाए मोह—माया के बंधन में


जीवन के हर मोड़ पे कितनी साँसों का बलिदान हुआ

जाने कितने सूरज डूबे सुख—दुख की इस उलझन में


गुम—सुम—से हम दिल में इक तूफ़ान छुपाए बैठे थे

उनसे नयन मिले तो कौंधी बिजली—सी इक तन—मन में


उनसे कोई संबंध नहीं है फिर भी वे जब मिल जाएँ

इक तेज़ी —सी आ जाती है `सागर’! दिल की धड़कन में