भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
काश / आभा पूर्वे
Kavita Kosh से
मेरी हथेलियों के दोने पर
तुम्हारे चेहरे का होना
लगा था
अंजुरी के जल पर
चाँद ही उतर आया हो
आकाश सूना हो गया था
अचानक ही
और रात का अन्धकार
तुम्हारा केश बनकर
मेरी हथेलियों से उपट
जमीन पर पसर गया था
जैसे धरती के किसी कोने से
हौले-हौले
यमुना के जमे जल का सोता
फूटकर फैल गया हो ।
हथेलियों में ही
अपना चेहरा छिपाए
तुमने कुछ कहा था
हवा की सिसकारी
उसकी कोमल छुवन
बर्फीली ठंड का एक साथ अहसास
काश
मैं आकाश पर
बहते सोतों पर
हवाओं पर
तुम्हारा नाम लिख पाता ।