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कासों कहों हिये की बात / स्वामी सनातनदेव

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राग धनाश्री, तीन ताल 16.7.1974

कासों कहों हिये की बात।
तुम बिनु मेरे प्राननाथ! कोउ अपनो कहुँ न लखात॥
अपने हूँ सपने बनि बैठे, कैसे जिया जुड़ात।
मन में रहत कुलबुली प्रतिपल, पन्थ न न कोउ लखात॥1॥
जिय की जरनि जरात निरन्तर, बनत न दीखत बात।
कलपत-विलपत ही वय बीतत, अन्त दिखत नियरात॥2॥
अपने में अपनो न रह्यौ कछु, तुमहुँ सुनहु नहिं बात।
कैसे धीरज होय दयानिधि! जीवन यों ही जात॥3॥
कहा कहों कुछ समुझि न पाऊँ, आकुल-व्याकुल गात।
कबहुँ कि आय मिलहुगे प्यारे! देखि मोहिं अकुलात॥4॥