काहू कौं जानौं न मैं / हनुमानप्रसाद पोद्दार
काहू कौं जानौं न मैं, ना मोहि जानै कोय।
तुम सौं प्रीति लगी रहै, हम-तुम जानें दोय॥
प्रेम हृदय कौ गुपुत धन, परम अमोलक सोय।
बिबिध जतन करि राखियै ताहि हृदय महँ गोय॥
प्रेम अनन्य बिसुद्ध अति, नित्य अखंड, असेष।
प्रतिपल बढिबौ ही करै अनुभवरूप बिसेष॥
गोपन अति गति प्रेम की, हिय महँ रहै सुभाय।
ज्यौं यापक सर्बत्र हरि, बाहेर कछु न जनाय॥
प्रेम अगाध उदधि सरिस, अतिसय तल गंभीर।
बिरले पहुँचैं अतल तल, ठाढि रहैं सब तीर॥
प्रेमोदधि के अतल तल जे जन पहुँचे जाय।
ते नहिं उछरत कबहुँ फिरि, रहत निमग्र सदाय॥
छुद्र सरित कछु पाइ जल उमगत, बढ़त गुमान।
सब सरितन कौ नीर भरि बढ़त न जलधि अमान॥
छलकै-मुलकै प्रीति जो, ताकी हलकी जाति।
उच्च प्रेम गंभीर अति, अमित उदधि की भाँति॥
अति पवित्र, अति ही बिमल, बिषय-बासना-हीन।
मोह-मैल नहिं रहत तहँ करि पावत न मलीन॥
बिषय-बासना जो बसी आइ हृदै के बीच।
तहाँ प्रेम नहिं जानियै, रह्यौ काम-अरि नीच॥
जोगसिद्धि अरु ब्रह्मापद, गति न चहै निर्बान।
इंद्रिय-सुख कौं गनै को, तम जिमि उदऐं भान॥
बिषय-बासना अंध तम, जहँ न अमा-निसि होत।
परम समुज्ज्वल प्रेम-रबि तेहि घट परगट होत॥