भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काहे न हरि ही कों सुमिरहु रे! / स्वामी सनातनदेव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग पीलू, कहरवा 21.8.1974

काहे न हरि ही कों सुमिरहु रे!
सुमिरन बिना न रह्यौ जात तो काहे अनत परहु रे!
सुमिरन को सुभाव हरि दीन्हों, तासों तिनहिं भजहु रे!
और काम कोउ होत न यासों, फिर काहे भटकहु रे!॥1॥
काज होत करिबे-धरिबे सों, सो क्यों हृदय धरहु रे!
केवल सुमिरनसों न साधत कछु, फिर क्यों वृथा खटहु रे!॥2॥
सुमिरनसों तो मिलहिं स्याम ही, उनहिं सदा सुमिरहु रे!
सुमिरि-सुमिरि हरि के पद-पंकज भव-भय सकल तरहु रे!॥3॥
स्याम बिना जो अग-जग सुमिरहु तासों वृथा बँधहु रे!
यासौं कै तो रहो अफुर अथवा हरि ही सुमिरहु रे!॥4॥
अफुर रहे हूँ अमन होय फिर निज में निजहिं लहहु रे!
निज के निज हैं प्राननाथ हरि, यासों अमन रहहु रे!॥5॥
यहि विधि अमन-मनन दोउनसों निज में हरिहिं गहहु रे!
हरि तजि और वृथा चिन्तन करि काहे भव भटकहु रे!॥6॥