काहे सरमाति है! / प्रतिभा सक्सेना
दूध-जल कोऊ लाय तुमका समर्पि देय,
नाँगेँ बैठ जहाँ-तहाँ तुरतै न्हाय लेत हो!
लाज करौ कुछू ज्वान लरिकन के बाप भये,
ह्वै के पुरान-पुरुस नेकु ना लजात हो,
ऋद्धि-सिद्धि बहुरियाँ घरै माँ, तहूँ सोचत ना.
भाँग औ'धतूरा बइठ अँगना माँ खात हौ!
लाभ-सुभ बारे पौत्र, निरखत तुम्हार रंग-
माई री, मैं देखि धरती माँ गड़ी जात हौं!
हँसे नीलकंठ, जनती हतीं रीं गौरा,फिन
काहे लाग माय-बाप हू की सीख ना सुनी!
तोहरे ही कारन गिरस्थी स्वीकार लई,
काहे हठ धारि लियो, मोर दुल्हनिया बनी!
लोग हँसे तो का, आधे अंग में धरे हों तोहि,
मेरे साथ-साथ तू भी उहै जल न्हाति है,
आध-आध दोऊ जन साथ-साथ देखें सब,
मोर-तोर प्रीत अइस काहे सरमाति है!'
पल्लू मुँह दाबे, हँसे जाय रहीं पुत्र-वधू,
ऋद्धि-लिद्धि आँगन तिरीछे से नैन भे,
चौकी पे बैठे गनेस झेंप खीज भरे,
समुझैं न माय-बाप सों कहा कहैं जाय के!