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काहे होखत बाड़ू अतना अधीर धनिया / विजेन्द्र अनिल
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काहे होखत बाड़ू अतना अधीर धनिया,
लड़िके बदलीं जा आपन तकदीर धनिया।
सहर कसबा भा गाँव, सगरे जुलुमिन के पाँव
केहू हरी नाहीं हमनीं के पीर धनिया।
सगरे होता लूट-मार, नइखे कतहीं सरकार
ठाढ़ होखs पोंछ अँखिया के नीर धनिया।
जेकरा दउलत बेसुमार, ओकरे सहर ह सिंगार,
दीन-दुखियन के सहर, गँगा-तीर धनिया।
घिरल घाटा घनघोर, नइखे लउकत अँजोर,
अब त करे के बा, कवनो तदबीर धनिया।
छोड़ सपना के बात, धरs धरती प लात,
मिलि-जुलि तूरे के बा अपने जँजीर धनिया।
रचनाकाल : 22.10.1991