भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

का चिन्ता के रोग लगाईं? / सुभाष पाण्डेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

का ना पवनीं ए जिनिगी से
जवना खातिर सोग मनाईं?
कद काठी मजबूत देह बा
का चिन्ता के रोग लगाईं?

जवने चहनीं पियनीं, खइनीं,
जहवाँ इच्छा अइनीं, गइनीं।
नाम, मान, यश सजी दिशा में
मीत, सनेही पाइ धधइनीं।
ना कुंठा वैकुंठ बिराजीं
कथि के अब उतजोग लगाईं?
का चिन्ता के रोग लगाईं?

रिश्ता-नाता ठीक निबहनीं,
आपन हारल तनिक न कहनीं।
सभका खातिर लोर बहवनीं,
खुशी-खुशी तकलीफो सहनीं।
छप्पन बिजन मिलल भा सूखल
प्रेम सहित सब भोग लगाईं।
का चिन्ता के रोग लगाईं?

विनयी हरखित घर परिवारी,
सुत, दारा सब अज्ञाकारी।
सखा, सहोदर, सुता, भतीजा
सुन्नर सुन्नर सद् आचारी।
हँसत कटत दिन रतिया सदईं
बइठल देखत जोग सधाईं।
का चिन्ता के रोग लगाईं?

रोज किरिनि आ के दुलरावे,
बेना निज कर पवन डुलावे।
रतिया गोदी में बइठा के
आँचर तानत गोद सुतावे।
ई सुख छोड़ि अनत जाए के
हम काहें हड़बोंग मचाईं?
का चिन्ता के रोग लगाईं?

अपने में खूद के बइठाईं,
ना शत ठाँवन मन दउराईं।
कबहूँ पावत, कबहूँ खोवत
कविता खातिर कलम चलाईं।
गुजरत बा बहुते मस्ती में
मस्त रहे सब लोग लुगाई।
का चिन्ता के रोग लगाईं?