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किंशुक के प्रति / मुकुटधर पांडेय

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वर-बसन्त-दूतिके, “कलित-किंशुक-कली”!
बता, आज इस ओर कहाँ आती चली?
भूल पड़ी या प्रीतम का आदेश है,
जिससे पावन हुआ आज मम देश है?

बिछुड़े उनसे बीता पूरा वर्ष है,
रहा न मन का धैर्य, हृदय का हर्ष है।
विरहानल में घोर ग्रीष्म भर मैं जली,
नेत्रों को करके निर्झर वर्षा चली।
डाल तुहिन-तम-तोम निखिल संसार में,
रक्खा हिय ने मुझको कारागर में।
इस जीवन-पथ पर अनेक आये गये,
हर न सके सन्ताप, दिये दुःख ही नये।
घोर-घना की निशा निरन्तर थी खड़ी,
सहसा उज्ज्वल किरण रूप तू लख पड़ी।

स्वागत, किंशुक-कलिके, तुझे अपार है,
तब हित कब से खुला हुआ मम द्वार है।
प्रिय वियोग से हुई आज मैं दीन हूँ,
स्वागत फिर क्या करूँ नितान्त मलीन हूँ?
फल फूलों से यद्यपि हाथ ये रिक्त हैं,
नेत्र-कमल फिर भी करुणा-जल सिक्त है।
देती हूँ मैं पाद्य तुझे यह दूतिके!
मेरे उर के भाव हाथ तेरे बिके।

किंशुक-कलिके, हुई आज पथ-कलान्त तू,
बैठ वृक्ष पर हो जा किंचित शान्त तू।
फिर कुछ वृत्त नवीन सुना सुविनोद से,
बिता सुख विश्राम-घड़ी यह मोद से।

आना तेरा हुआ कहाँ, किस देश में,
बीता इतना काल, बता, किस देश में?
है वह कैसा देश, वहाँ कैसी छटा,
क्या न वहाँ घिरती वियोग-दुःख की घटा?
हँसते क्या दिन-रात वहाँ उद्यान हैं,
क्या शाखा पर फल न होते म्लान हैं?
क्या न वहाँ तम-जाल सदा सुप्रकाश है!
करता सर में स्वर्ण-सरोरुह हास है?
सुना अमृत की निर्झरिणी झरती वहाँ,
क्या सचमुच वह मरण-भीति हरती वहाँ?
प्रीतम ने तो उसमें अवगाहन किया,
ओज-युक्त अनमोल अमरता-धन लिया?

कलिके, कितनी दूर बता ऋतुराज है,
वे प्रसन्न तो लौट रहे ससमाज हैं?
मिलन हेतु अब तो उत्कण्ठा है बड़ी,
छोड़े उनको हुई मुझे कितनी घड़ी?
आम्र-मंजरी आतुरता दिखला रही,
कोकिल स्वागत-गीत मधुरतर गा रही।
मैं कब से यह बिछा सुआसन हूँ खड़ी,
छोड़े उनको हुई मुझे कितनी घड़ी?

-सरस्वती, फरवरी, 1921