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कितना और अभी चलना है / उर्मिल सत्यभूषण

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गिरती पड़ती
चलती जाती
मंज़िल कहीं
दीख न पाती
पर्वत दर पर्वत
चढ़ना है
जब तक तेल
खत्म नहीं होता
जब तक बाती
रहे भिगोता
दीपक को तिल-तिल
जलना है
चुपके-चुपके
संझा आती
सुरीला आंचल
फैलाती
सूरज छुपे दिवस
ढलना है।
रजनी जाती
प्रातः आती
आशा की
किरणें मुस्काती
ठगनी माया की
छलना है।