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कितना कुछ होना बचा रह जाता है / मनीषा पांडेय

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जीवन में कितना कुछ होना
बचा रह जाता है
अभी तो कहना था कितना कुछ
कितना तो सुनना था

एक नदी थी
जिसके उस पार जाना था
पहाड़ी पर फिसलना था एक बार
सुदूर जंगल के एकांत में
जोर से पुकारना था तुम्‍हारा नाम
तुम्‍हारी गर्दन में अपनी बाहें फँसाए
तुम्‍हारी पीठ पर लटक जाना था

अचानक कहीं पीछे से आकर
तुम्‍हारी आँखों को मूंद देना था
अपनी उँगलियों से
रात के बीहड़ अन्धेरों में चुपचाप
चट्टान पर समंदर की लहरों को टूटते देखना था

बस में मेरे बगल वाली सीट पर बैठे
मेरी खुली बाँहों का झीना-सा स्‍पर्श
और देह से उठती नमकीन महक का एहसास
जीना था तुम्‍हें

नेरुदा और मारीया को पढ़ना था साथ-साथ
फेलिनी की दुनिया में चुपके से उतरना था
पैडर रोड के शोरगुल के बीच
एक दूसरे की हथेली थामे
बस यूँ ही गुज़र जाना था एक दिन

कुछ कहना नहीं था
बस एक दूसरे को नज़र उठाकर
देख भर लेना था
मेरे तलवों को तुम्‍हें
अपने होंठों से छूना था
उठा लेना था मेरी देह को
अपने हाथों में
एक बार डूबकर चूम लेना था

तिर आना था एक बार
देह में बसी संपूर्ण पृथ्‍वी से
घुल जाना था तुममें एक दिन ऐसे
जैसे नमक पानी में
अपने भीगे बालों के छीटों से
भिगोनी थी तुम्‍हारी अधखुली किताब
इस तरह अंधेरे जंगल में टांकने थे
प्रेम और सुख के सितारे
स्‍मृतियों के मीठे कण

प्‍यार की नदी में तैरना था
जिस मोड़ से अलग होती थीं हमारी राहें
उससे पहले
ठहरना था एक पल को
पूछना था तुम्‍हारे घर का पता
जिस ठिकाने कभी पहुँचे कोई ख़त

जाते हुए देर तक
विदा में हिलाना था अपना हाथ
लेकिन देखो
इस रफ़्तार से गुज़रा सब
कि ऐसा कुछ न हुआ
जीवन में कितना कुछ होना
बचा रह गया।