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कितना खोया, कितना पाया / गरिमा सक्सेना
Kavita Kosh से
उड़ते-उड़ते पंछी
कितनी दूर
निकल आया
नदिया, पनघट,
पगडंडी, चौपालें छूट गयीं
अमिया, पीपल,
बरगद की वो डालें छूट गयीं
गर्मी, सर्दी, वर्षा,
पतझड़, वो बसंत के दिन
ज्वार, बाजरा,
गेहूँ की वो बालें छूट गयीं
सिर्फ़ धूप ही
धूप मिल रही
नहीं कहीं छाया
हँसी ठिठोली, मान मनव्वल,
उत्सव छूट गये
सपनों की ख़ातिर वो प्यारे
कलरव छूट गये
औसारा, आँगन, मुँडेर,
दीवारें औ’ द्वारे
खट्टे-मीठे, कच्चे-पक्के
अनुभव छूट गये
स्मृतियों में
कुछ पल खोकर
ख़ुद को बहलाया
नये ठौर पर बिना रोक
अवसर स्वछंद मिले
इत्रों के बाज़ारों में पर
कब मकरंद मिले
रोज़ घड़ी की सुइयों के सँग
ऊँचाई पायी
लेकिन झंझावातों में सब
द्वारे बंद मिले
सोच रहा
कितना खोया है,
कितना है पाया?