भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कितना मीठा है / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कितना मीठा है यह वंचन!

अपनों में मैं जब रहता हूँ,
रहता है उल्लास उछलता;
अपना ही अभिनय अपने को
तब कैसे-कैसे है छलता!
पचना था जिसको निस्तल में,
फेनों में छलका पड़ता है!
दाहशेष जीवनोच्छ्‍वास ही
घनीभूत होकर झड़ता है;
इसी तरह क्या चला करेगा,
मुझसे ही मुझमें यह प्रहसन?