भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कितना सहन करूँ मैं मुझको इतनी पीर मिली / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
कितना सहन करूँ मैं मुझको इतनी पीर मिली।
पल पल तिल-तिल काट रही ऐसी तकदीर मिली॥
विगत सुखद कब रहा कि जिस को प्रतिक्षण याद करूँ
सदा मुझे खाली गागर गंगा के तीर मिली॥
कब आशा झलकी नयनों में भोर सितारे-सी
पूनम भी यूँ खिली कि ज्यों पग को जंजीर मिली॥
विपदा रही काटती क्षण-क्षण जीवन सुख नैया
जीकर कब किस राँझे की बाहों को हीर मिली॥
भरी सभा में दुःशासन निर्वस्त्र न कर पाया
किंतु आज की द्रुपद सुता को कब वह चीर मिली॥