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कितनी आसाँ दीखती है पर नहीं है ज़िन्दगी / भरत दीप माथुर

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कितनी आसाँ दीखती है पर नहीं है ज़िन्दगी
रोज़-ओ-शब बस इम्तिहानों की ज़मीं है ज़िन्दगी

नाचती है ज़िन्दगी ढ़ोलक की थापों पर कहीँ
और कहीँ बेबस निगाहों की नमीं है ज़िन्दगी

ये कभी मिलती नहीँ है जंग के मैदान में
जिस तरफ़ हँसता हो बचपन बस वहीं है ज़िन्दगी

वो बदलती है बड़ी फ़ुर्ती से अपने आप को
है कहीँ मरियम.. तबायफ़ भी कहीं है ज़िन्दगी

मुझको ग़ालिब-मीर के दीवान देते हैं सदा
"दीप" मुझसे बोलते हैं आ..! यहीं है ज़िन्दगी"