कोई शब्द नहीं उगे धरती पर,
किसी भी भाषा में नहीं,
जिनके कंधों पर सौंप पाती
संप्रेषण का भार
कि पहुँचा दो
सब कुछ वैसा का वैसा
जैसा घट रहा है मेरे भीतर,
कोई भी ज़रिया नहीं
जिससे पहुँचा सकूं
अपना मन पूरा का पूरा ।
उदास हूँ
ये सोचकर कि
न जानते हुए भी
मेरे दिल का पूरा सच,
न जानते हुए भी कि
सचमुच कितना प्यार है
इस दिल में
कितने ख़ुश हो तुम
कितनी कम हैं तुम्हारी ख़्वाहिशें
और कितना विशाल
मेरी चाहत का संसार...