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कितनी कशिश है हुस्न की इस धूप छाँव में / 'उनवान' चिश्ती

कितनी कशिश है हुस्न की इस धूप छाँव में
गुम हो चुकी हैं मेरी निगाहें अदाओं में

तारीकी-ए-हयात का कुछ ग़म नहीं मुझे
इक रौशनी है मेरी दिल की फ़ज़ाओं में

हद्द-ए-निगाह तक है चमन सा खिला हुआ
ये कौन आ बसा मेरी पलकों की छाँव में

ये किस ने कह दिया है वही जान-ए-रंग-ओ-बू
तहलील हो रहा हूँ चमन की फ़ज़ाओं में

‘उनवान’ जब से कोई मेरा हम-सफ़र हुआ
सब मह-रूख़ों को मुझ से शिकायत ही गाँव में