भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कितनी दमघोंट तपती ऊँचाइयाँ / दिनेश्वर प्रसाद

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कितनी दमघोंट तपती ऊँचाइयों
और असुर्या घाटियों के बाद
            यह समतल आया है !

यहाँ किन्हीं आँखों में
बोनी थी कुछ हँसी
किसी दर्पण में
आँकने थे कुछ बिम्ब

लेकिन फिर सभा करती हुई
                  नई उदासियाँ
फिर बतियाती हुई नई असफलताएँ
फिर बाट जोहती हुई नई यात्राएँ

(8 नवम्बर 1968)