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कितनी भीड़ में रहते हो / सुरेश चंद्रा
Kavita Kosh से
कितनी भीड़ में रहते हो
तब वो, अब ये, जाने जब
कब-कब, क्या?
कितने चेहरे, जिस्म, तिलिस्म
ऊब जाते हो पर थकते नहीं
वही कवायद हर सुबह से शाम
ज़द्दोज़हद वही वही रात भर
कल तंगहाल चेहरे से फिर मुस्कुराना
आज बह जाना फिर किसी ज़र्द रंग में
रोज़ फ़हम को फ़ाख्ता वहम का फ़रेब
नई कमीज रोज़ाना, ख़ास्ता वैसी ही जेब
कितने अकेले फिरते हो, साथ अपने, ज़िन्दगी भर
मुक़म्मल दिखाते हुए झूठे, हर एक-एक बात पर
तुम किस से चाहते हो मरहम और सुकून
सब जल-जल धुँआ होगा, ज़ज़्बा, सुकून
तुम किस को, सच, लगने दोगे अपनी हवा
न कोई, हो भी सकेगा, उम्र भर, तुम्हारी दवा
कितनी भीड़ में रहते हो
तब वो, अब ये, जाने जब
कब-कब, क्या?