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कितनी सुबहें कितनी शामें कितनी रातें छोड़ आये / अजय सहाब

कितनी सुबहें ,कितनी शामें ,कितनी रातें छोड़ आये
अपना दिल ,अपनी धड़कन और अपनी साँसें छोड़ आये

तेरी ही बातें करते थे जिन पेड़ों से रातों में
उन पेड़ों की शाखों पर वो सारी बातें छोड़ आये

अब भी तुझको ढूंढेंगी ,उस घर के कोने कोने में
उस घर से जाते जाते हम अपनी आँखें छोड़ आये

उन राहों को , उन गलियों को , मुड़ कर भी अब क्या देखें
जिनमें उस बिछड़े हमदम की सारी यादें छोड़ आये

अब भी तू वापस आये तो तुझसे आकर लिपटेंगी
वक़्ते हिजरत उस बस्ती में अपनी बाहें छोड़ आये