भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कितने अजीब हो तुम / रामदरश मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उसने झल्लाकर कहा-
”कितने अजीब हो तुम
तुम्हारा बुढ़ापा अभी भी
बात-बात में असभ्य की तरह हँसता है“
”सच कहते हो मेरे संजीदा दोस्त
मुझमें अभी भी
एक नादान बच्चा बसता है
जो मुझे बूढ़ा होने नहीं देता“।
-3.3.2015