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कितने अभिशाप / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
जैसे भी हैं कि
जी रहे हैं हम
तुमसे सम्बन्ध तोड़ कर
खिड़की पर धूल भरे व्यंग्य
आँगन में मानसिक कलह
फेंक गया सन्ध्या का रंग
जागी मुँह फेर कर सुबह
घर-घर बदनाम
हो गई शबनम
दुहरी सौगन्ध तोड़ कर
बाहर का बहरा बिखराव
विषदन्ती शूल की चुभन
विश्वासी मन का अलगाव
अधप्यासी पीर की जलन
कितने अभिशाप
दे गए मौसम
पिछले अनुबन्ध तोड़ कर
लगते परिचित, परिचयहीन
कुछ का कुछ हो गया समय
बैठे, किस छाँह के अधीन
अपनापन जोड़ कर हृदय
रूठे त्योहार
छा गया मातम
सारे प्रतिबन्ध तोड़ कर