कितने ख़्वाबों के पर टूटे कितने उड़ने वाले हैं / गौतम राजरिशी
कितने ख़्वाबों के पर टूटे, कितने उड़ने वाले हैं
कुछ हैं ग़ैरों वाले इनमें, कुछ तो अपने वाले हैं
करवट-करवट रातों वाले काले-उजले सपनों में
इक चेहरे के लाल-गुलाबी रंग अब घुलने वाले हैं
ख़्वाहिश-ख़्वाहिश के अफ़साने अरमानों के पन्नों पर
ताज़ा-ताज़ा चाहत के कुछ क़िस्से लिखने वाले हैं
चाँद उतर आया था मेरे छज्जे पर कल शाम ढ़ले
बात खुलेगी आज, सितारे जलने-भुनने वाले हैं
क़तरा-क़तरा उम्र पिघलने को है सारी की सारी
पलकों पर ठिठके-ठिठके लम्हे भी बहने वाले हैं
सुलगी-सुलगी यादों ने ये आग लगाई है कैसी
बिस्तर, कंबल, चादर, तकिया सारे जलने वाले हैं
बौराये मिसरों को जबसे बाँध लिया है शेरों में
चंद फ़साने अपने भी अब, देखो, बिकने वाले हैं
(मासिक वर्तमान साहित्य जुलाई 2013, त्रैमासिक अलाव 2014)