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कितने गड़बड़ झाले हैं / अभिनव अरुण
Kavita Kosh से
कितने गड़बड़ झाले हैं,
और हम बैठे ठाले हैं।
तेल खेल ताबूत तोप में,
घोटाले घोटाले हैं।
राजनीति अब शिवबरात है,
नेताजी मतवाले हैं।
कलम की पैनी धार कुंद है,
बाजारू रिसाले हैं।
बिकता नहीं साहित्य आजकल,
विज्ञापन के लाले हैं।
सुई गड़ाकर दूह रहे सब,
गोमाता को ग्वाले हैं।
क्या गाऊँ श्रृंगार की कविता,
मुंह में सच के छाले हैं।
नहीं गये अँग्रेज़ आज भी,
शासक लाठी वाले हैं।
न्याय की आँखों पर हैं पट्टी,
मुंह पर भय के ताले हैं।