कितने दिन बच पायेगा? / कविता भट्ट
अपने लाचार बूढे़ वृक्ष साथी से
सिसकते हुए पहाड़ की चोटी से,
बोला एक बूढ़ा-जर्जर वृक्ष हाँफता।
सिमटती नदी-घाटी की ओर झाँकता।
अबके जब सावन आएगा,
तुम्हारे-मेरे अंग सहलायेगा।
आओ हम-तुम शुभेच्छा करें।
अमृत धाराओं की प्रतीक्षा करें।
चिंतातुर- अतीत और भविष्य में डूबा,
स्वयं के छिन्न-विछिन्न रूप से ऊबा।
बोला-मैं उन्मुक्त था, प्रफुल्ल था,
शीतलनीर-समीर से चुलबुल था।
नृत्य करती थी-मेरी पत्ती-शाखाएँ,
और मेरे उर में थी- पक्षियों की मालाएँ।
अकस्मात् हो उठा प्रकुपित मानव-मन,
जिसका साक्षी है मेरा अधजला तन।
अपनी क्षणिक स्वार्थवशता में,
या किंचित् संवेदनहीन मूर्खता में।
अहंवश छोड़ी एक दग्ध-क्रूर ज्वाला,
जिसने तुम्हें और मुझे झुलसा डाला।
जला डाले हमारे संग कुछ घोंसले,
और कुछ चहकते मचलते घरौंदे।
फिर रहे-अब वे पशु बिदकते,
भय से- लाचार और सिहरते।
उनका ही मानव से अन्तहीन संघर्ष होगा,
हमसे निर्मित संतुलन का विध्वंस होगा।
साथी! हम दो पग भी चल सकते नहीं,
अपनी दुर्दशा का प्रतिशोध ले सकते नही।
किन्तु, सभी हमारे साथी पशु घरौंदों वाले,
मानव से संघर्ष करेंगे प्रतिशोध के मतवाले।
किन्तु; दुःखद है, हाय! दुःखद, हश्र हो जायेगा,
जीवन-संघर्ष जब मानव विरुद्ध कहा जायेगा।
निरीह पशुओं में से कोई भी न बचेगा,
तो व्यूह-रचयिता मानव भी कितने दिन रहेगा?