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कितने निराश हो तुम ! / रवि प्रकाश

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कितने निराश हो तुम !

सब कुछ जानते हुए

किस घुप्प अँधेरे में जा बैठे हो

खोखला कर देंगे वे तुम्हें

ख़तम कर देंगे वे तुम्हें!

तुम्हारा निराश होना

उनका तुम्हारे अन्दर तक काबिज हो जाना है !

बाहर निकालो इनसे

लड़ो इनसे

जो ये हवाई जहाजों के शोर से

तुम्हारे लिए दहशत गढ़ रहें हैं
,
तुम्हारी अपनी दुनियां से काट कर

एक मायावी दुनिया का भ्रम रच रहें हैं

तुम्हारी हड्डियों के सूरमे से

सभ्यता का मुखौटा तैयार कर रहे हैं !


कभी उन पीढ़ियों के बारे में सोचते हो

जो आँख खुलते ही

या तो किसी यातना गृह में में होंगी

या तो किसी भयानक पाशविक मशीन का पुर्जा

ये यातनाएं उन्हें सिर्फ इसलिए नहीं मिलेंगी

कि उनका खून गर्म या लाल था

बल्कि इसलिए कि

उनकी विकाश की परिभाषा में

उनकी हड्डियों का बुरादा

दो ईंटों के बीच गारे की तरह लगाया जाना है !


लोकतंत्र का आयत और निर्यात

जो तुम्हारे गाल पर तमाचे की तरह किया गया है !

उनके स्थापित होते ही

तुमने अपने बगदाद को घुटते हुए देखा है,

वियतनाम को सुलगते हुए देखा है !


मुझे उम्मीद है कि

बमों की थर्राहट से कांपती

धरती और ह्रदय के पच्छ में

खड़े होगे तुम !