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कितने सूर्योदय अंकित इस गोरी देह पर / विजय सिंह नाहटा

कितने सूर्योदय अंकित इस गोरी देह पर
अंतर में दबाए कितनी पूर्णिमाएँ
आकुल अधरों से फूटती मौन प्रार्थनाएँ
दफन सूने रेतीले विराट में
रह रह अनाम संगीत बन गूंजती
रात के निचाट एकांत में
विस्मय कि रंग नहीं बदलते,
न मिज़ाज ही छोड़ते
ये रेतीले धोरे नित्य नवैले:
आज तलक एकनिष्ठ धूसर; मटमैले
निष्कलुष ताज़ा प्रेम: अनभोगा सा लिपटा
गोया, अनादि से
आतापना में डूबा एक चिर योगी: अजातशत्रु
ज्यों समूची सृष्टि को बनाए धूणी:
ये मृत्युंजय थार।