भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कितने सैनिक, कितने पहरे / विनय कुमार
Kavita Kosh से
कितने सैनिक, कितने पहरे, कब तक रहता डरा हुआ।
कमरे का सच पीला पीला बाहर निकला हरा हुआ।
जिसका सिक्क़ा वही कसौटी सुनते रहिये झंकारें
एक बार संसद में पहुँचा खोटा सिक्का खरा हुआ।
आर पार क़ातिल कुहरे के दो सदियों के संगम पर
एक मसीहा आधा ज़िन्दा लेकिन आधा मरा हुआ।
आँखें गुमसुम रिमिझम रिमिझम शोर मचाया होठों ने
रोते रोते हरा हुआ, हँसतें-हँसतें अधमरा हुआ।
होड़ लगी है बिक जाने की, टिक जाने की फिक्र किसे
उल्टी बानी भूल कबीरा भी देखो मसखरा हुआ।
बरसों लंबी वीरानी का मारा हुआ शिकारा दिल
उम्मीदों की झीलों में अब भी है पानी भरा हुआ।
गये राम जी फिर जंगल में राज तिलक के पहले ही
करते रहिए मन में मंथन किसका मन मंथरा हुआ।