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किताबें, डायरियाँ और क़लम / कमल जीत चौधरी
Kavita Kosh से
किताबें
बन्द होती जा रही हैं
बिना खिड़कियाँ - रोशनदान
वाले कमरों में
डायरियाँ
खुली हुई फड़फड़ा रही हैं
बीच चौराहों में
क़लम
बची है सिर्फ़
हस्ताक्षर के लिए ।