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किताबे-ज़िन्दगी / अरुण कुमार नागपाल
Kavita Kosh से
बिखरे रहते हैं सब के सब पन्ने
इधर-उधर उड़ते
यहाँ-वहाँ गिरते
बेतरतीब
ऐसा कोई नहीं
जो काग़ज़ों को एक -एक करके उठाता
हरेक वर्क़ सँभालता
और सँवर जाती
ज़िन्दगी की किताब