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किताबों की पुकार / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
जाड़ों की धमक में
किताबों की दुनिया
होती है गुलजार
लगता है विश्व पुस्तक मेला
राजधानी के प्रांगण में
नई पुरानी पुस्तकों का
खुलता है जखीरा
गोष्ठियाँ, पुरस्कार, सम्मान
लोकार्पण, चर्चा ,विमर्श से
हर रोज़ गुजरता है मेला
लेकिन प्रकाशक उदास
नहीं बिकती हैं उतनी किताबें
सूनी रहती हैं बहुत हद तक
पाठकों से
किताबों की दुनिया
देश गुजर रहा है
महाविनाश से
किताबें पुकार उठती हैं
दीनता से
मत करो निर्माण
हथियारों का
हथियार नहीं होंगे तो
कैसे होंगे युद्ध ,महाविनाश
कैसे जमेंगे पैर आतंक के
हमी से रचो शांति ,प्रेम
निर्माण के पथ
किताबों की दीन पुकार
बमों की आवाज़ में
किर्च-किर्च बिखर
बिला जाती है
हो जाता है
मानवता का विनाश
बिन किताबों के