Last modified on 29 अगस्त 2018, at 16:30

किताबों के बारे में कुछ टिप्पणियाँ / प्रफुल्ल शिलेदार

लेखक की आत्मकथा से किताबों के बारे में कुछ टिप्पणियाँ

१.

किताबें
मुझे ढूँढ़ती चली आती हैं
भीतर से आस रहती है उन्हें
मुझसे मिलने की

पुराने दोस्त की तरह
मुझे ढूँढ़ने की
बहुत कोशिश करती रहती हैं
किसी पल आख़िरकार मेरा पता पाकर
सामने आकर ख़ड़ी होकर
इत्मिनान से ताकती रहती हैं

मै उन्हें कब पढूँगा
इसकी राह देखती हैं
उन्हें पढ़े जाने की
कोई जल्दी नहीं होती

कभी-कभार मै
हैरानी से
उनकी ओर देखता हूँ
बस यही काफ़ी होता है उनके लिए

हाथ में लेता हूँ
तो दिल धड़कने लगता है किताबों का
आँखों में चमक-सी छा जाती है

पढ़ने लगता हूँ तो
साँसे थाम लेती हैं
मेरी एकाग्रता
भंग होने नहीं देतीं

आधा पढ़कर रख देता हूँ
फिर भी मायूस न होकर
मैं उन्हें फिर से कब उठा लूँगा
इसकी राह देखती हैं

पूरी पढ़ी जाने के बाद
किताबें थक जाती है
भीतर ही भीतर सिमटकर
सोचती रहती हैं
मुझ पर
क्या असर हुआ होगा

२.

जैसे भेस बदलना
बस वैसे ही
भाषा बदल कर
किताबें
दुनियाभर की सैर करती रहती हैं

कई सारी लिपियों के अक्षर
अपने बदन पर
गोदती हैं

सारी सीमाएँ लाँघकर
हवा के झोंके जैसी
मस्ती में
चारो ओर घूमती रहती हैं

३.

किताबों का
अपना रूप होता है
बंद आँखों से भी
छूने के बाद
उसका अहसास होता है

गंध होती है
उनके आने से पहले
वह महकती चली आती है

मुखपृष्ठ के मुखौटे
चेहरे पर रख कर
किताबें आया करती हैं

हर पन्ने का दरवाज़ा
खुला रखती हैं

कहीं से भी
किताबों में
प्रवेश किया जा सकता है

४.

पहली बार हाथ में आई
नई किताब
बाद में घुल-मिल जाती है
इस हाथ से उस हाथ में
घूमते भटकते
छीजती जाती है

पहले तो
उसके शुरुआत के पन्ने
गल जाते हैं
बाद में
आख़िरी पन्ने झड़ जाते हैं
और अन्त में
तो वह किताब ही
कहीं ग़ुम हो जाती है

नई पुस्तक ख़रीदने के बावजूद
उस प्रति की यादें
मन से हटती नहीं

किताबें बूढ़ी होती जाती हैं
डण्ठल से उनके पत्ते
छूटने लगते है
तब उन्हें
नर्मदिली से
उठाकर रखना पड़ता है
बूढ़े बाप जैसा
सम्हालना पड़ता है

५.

आँखे मूंदकर
किसी किताब की
मन में इच्छा धरना

और आँखे खोलने के बाद
तुरन्त उस किताब का
आँखों के सामने होना

ऐसा तो आजकल कई बार होता रहता है
लेकिन पहले किताबें
सिर्फ दुर्लभ ही नहीं
क़ीमती जवाहरातों जैसी होती थी

अभी अभी चार शताब्दी पहले तक
होमिलीज की एक प्रति खरीदने के लिए
दो सौ बकरियाँ और दो बोरे अनाज
देना पड़ता था

किताबों को पास में रखना
किसी ऐरे-गैरे का
काम नहीं था

उधर किताबे
सरदार उमराव
रईसों-अमीरों के पास
या फिर किसी मठ में या
पीठ में होती थीं

और इधर तो
सर पर पक्की चोटी बाँधकर
वज्रासन में बैठती थीं

बहुत क़रीब जाने पर
बदले में सीधए हाथ का अँगूठा काटकर
माँगती थीं


६.

किताबें
लिखी जा रही हैं
सदियों से
कौन जाने कब से
ये छपती जा रही हैं

नौवी सदी में
वांग चे की छपी हुई किताब
अब भी है ब्रिटिश म्यूजियम में

पंद्रहवी सदी की ग्युटेनबर्ग बाइबल
मैंने अपनी आँखों से देखी है
जो एलिज़ाबेथियन मेज पर
बन्द काँच के सन्दूक में रखी हुई थी
लायब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस में

मृग शावक की
या पशु भ्रूण की
कोमल महीन चमड़ी को
गुलाबी जामुनी पीले नीले हरे
रंग से सिझाकर बने वत्स पत्रों पर
लिखी गई किताबों को
दूसरे हेनरी की रॉयल लाइब्रेरी से
लाइब्रेरी ऑफ़ पेरिस में
देखकर हैरान हो गया

७.

किताबें
लिखी गईं
कपड़े पर
पेड़ की छाल पर
रेशमी कपड़ों पर
सींगों पर
सीप पर
चावल के दाने पर

गोद दी गईं पूरे बदन पर
खरोंच दी
कारागार की दीवारों पर

पाँच सहस्राब्दियों पहले
अपौरुषेय पुस्तकें
आवाज़ के खम्बों से थमीं
बरामदे में रहती थीं
वैशम्पायन की अंजुली से
याज्ञवल्क्य के हाथों में
नवजात बालक की तरह
सौपी गईं

किताबें सीसें की थीं
पक्की भुनी हुई ईटों की थी
नाइल के किनारे पाए जानेवाले
पपायरस पर भी
लिखी गईं किताबें

पपायरस न मिलने पर
चर्मपटों पर
लिखी गईं किताबें

काल के
किसी भी ज्ञात कोने में
कोई किताब
मिल ही जाती है
असल में
किसी किताब के कारण ही
वह कोना
उजला होता है

८.

डर जितना आदिम है
उतनी ही आदिम होगी
किताबें

आग पर
काबू पाने का आनन्द
इनसान ने
लिख कर ही
अभिव्यक्त किया होगा

पत्थर से पत्थर पर
आग ही नहीं
संकेत चिन्ह भी
बनाये जा सकते है
इस बात का पता
उसे उसी वक़्त लगा होगा

९.

किताबें
पहली बार
धर्मग्रंथों के रूप में आईं
क्या इसीलिए
किताबों के बारे मे अभी भी
मन में इतना सम्मान है

सभी पवित्र कथन
किताबों से आए है
पर सभी किताबें
उन वचनों जैसी
पवित्र नहीं होती

धर्म के
विचारों के
इंसानियत के भी
ख़िलाफ़ होने का विष
उनमे उबलता दिखता है
तब किताबे
पराई-सी लगती है

१०.

किताबें
अचानक
कगार तक
धकेलती जाती हैं

चाकू से भी
नुकीली होती हैं

ठण्डे दिमाग से
दिमाग फिरा देती हैं

फ़साद में
पत्थर लाठी साँकल सलाखें
बन जाती हैं
छुरामारी में
चाकू का काम करती हैं

दंगे में
पत्थर की पाटी होकर
रस्ते में
गिरे हुए के
सिर को
कीचड़ में बदल देती हैं

जलाने में
पलीता
या पेट्रोल बम
हो जाती हैं

चारमिनार की छाँव में
भरी राह में
बदन पर
तेज़ी से चलने वाले वार
बन जाती हैं

ए०के० फोर्टी सेवेन से
हर मिनट को
छह सौ राउण्ड की गति से
छाती में दागी जाने वाली
आस्तिक गोलियाँ बन जाती है

दिनदहाड़े
बाजार में पकड़कर
सिर पर टिका
पिस्तौल हो जाती है

बीच रात
घर के सामने इकठ्ठा भीड़ से
पत्थर बन कर
सरसराते हुए फेंकी जाती हैं

आधी रात
फ़ोन पर धमकियाँ देती हैं

रंगमंच उछाल देने वाला
दीवानगी भरा प्रेक्षागार बन जाती हैं

११.

लोहे-सी दीवार पर
अपने नाखूनों से
खरोचने लगता हूँ तो
निगाहों की नोक पर
आ जाता हूँ

खुली हवा की तलाश में
आते है कई लोग मेरे पीछे-पीछे
सफेद छोटे से अँगोछे का
पीछा करने वाला
भरी भीड़ से
आगे आता है
पहचान कर
रिवाल्वर दाग देता है

महात्मा मिट जाते हैं
मण्डेला मुक्त होते हैं
धीमी गति से
बढ़ता है मुक़दमा
आँखों के सामने चमकती है
टूटी हुई निब
काले कपड़े के भीतर
बाहर आ जाती है जीभ

अपने आप को खोकर
राह पर दौड़ने लगता हूँ
साँसें बढ़ती हैं
तियानमेन चौराहे पर पहुँच जाता हूँ

बर्फ़ जैसा जमने के बजाय
चिंगारी जैसे सुलगता हूँ

१२.

किताब छाती से सिमटकर
मन्दिर-मस्जिद के बाहर
क़तार में
उकडूँ बैठता हूँ

एक हाथ में किताब थामकर
दूसरे हाथ में
बिजली का तार
कसकर पकड़ता हूँ

किताब लाँघकर जाने के बाद
पागलख़ाने में
साँसनली में अटक जाता है
चावल का एक दाना
और रुक जाता
साँसों का गाना

१३.

किताबें तो निहत्थी होती हैं
लेकिन किताबों पर
हथियार चलाए जाने के
कई मसले
इतिहास में है

किताबें लेखक पर
दहशत का बोझ
लादकर
मुल्क निकासी करवाती हैं

ज़िन्दगी भर के लिए
जन्मभूमि से
जलावतन कर देती हैं

लेखक के
सिर काटकर लाने पर
इनाम भी रखा जाता है

दीवानगी में
किताबें
फाड़कर
टुकड़े-टुकड़े
किए जाते हैं

पागलपन में भी
कभी-कभी
बड़े संयम के साथ
लेखक के बजाय
किताबों को ही
जलाया जाता है

१४.

महाकाय
बामियान बुद्ध को
तोप से तहस-नहस करनेवाले
फैले हैं दुनियाभर में

कभी खुलेआम
कभी बुरका लेकर
रहते हैं

भीतर से
हमेशा डरे हुए से

महाकाय बुद्ध से ही नहीं
काग़ज़ के जीर्ण
टुकड़े से भी डरते है

किताबों पर ही नहीं
वे
पुरानी पाण्डुलिपियों पर
भूर्जपत्रों पर
बसन में लपेटे पोथियों पर
बहियों पर
रिसालों पर
तवारीखों पर
स्मृतियों पर
संहिताओं पर

शिलालेखों पर
ताम्रपट पर
मुद्राओं पर
सनदों पर
दस्तावेज़ों पर

वे झुण्ड बनाकर
हल्ला बोल देते है

कब्ज़े में आई हर चीज़
फाड़कर-फोड़कर
नष्ट कर देते है

किताबों का
अवाम में
ठाठ खड़े रहना
जेहेन में बस जाना
सत्ता को सामने आकर
चुनौती देना
जिन्हें खटकता है
वे किताबों को
नष्ट करने की
कोशिश में रहते है

लाख के घर बनाकर
लेखक को
बुलावा भेजते है

१५.

किताबे
इतिहास की गूढ़ हँसी
हँसती हैं

जो इतिहास बदल नहीं सकते
वे किताबों को बदलते हैं
उनकी निर्मलता
मलिन कर देते हैं

किताबों के माध्यम से
वे बरसों तक टिके रहेंगे
ऐसा मानकर
लिखवा लेते है
मनचाही किताबें

किताबों पर अपना झण्डा गाड़कर
उनकी छाती पर
पाँव रखकर
खड़े रहने से
किताबों पर
काबू पा लिया
ऐसा साबित नहीं होता

१६.

किताबें
अतीत की
मोटी चमड़ी फाड़कर
इतिहास के पेट में छिपी काली अँतड़ी
दिखाती हैं

वे जिनके लिए
गले का फंदा बन सकती हैं
वे दूर भगा देते हैं किताबों को

दरवाज़े-खिड़कियाँ
पक्की बन्द कर देते है
सीमाओं पर गश्त बढ़ा देते है
नाकाबन्दी संचारबन्दी
सब कुछ आजमाकर देख लेते है

उस वक़्त किताबें
तितलियाँ बनकर
उड़ती चली आती हैं
लेखक की, कवि की
उँगलियों पर
हलके से बैठकर
लाए हुए पराग-कण
उसकी क़लम की स्याही में
घोल देती हैं

१७.

किताबों को जब
अवाम की आवाज़
मिल जाती है
तब वे समुन्दर की ऊँची लहरों जैसे
गरजती हैं

पहुँच जाती है ऊँचाई पर
और तारों जैसी
अचल होकर
चमचमाती हैं

आँखों को दृष्टि देती है
आवाज़ को सुर देती है
बंधे हुए हाथ-पाँव
खोल देती हैं

तनाव की काँटों भरी बाड़ को
तोड़ने के लिए आरा बन जाती हैं
हाथ-पाँवों को बंधी रस्सी को काटने के लिए
चाकू बनती हैं

१८.

किताबें
सींप बनकर
भाषा को सहेजती हैं
उदक बनकर
अंकुर उगाती हैं

पेंग्विन होकर
मीलोंमील सफ़र करती हैं

चिड़ियों जैसे
घोसला ही नहीं
कठफोड़वे जैसे
गहरे संजीदा
निशान भी बनाती हैं

लायब्रेरी की अलमारियों में
बड़े संयम से
खड़ी किताबें
चील की नज़रों से
काँच से बाहर
ताक़ती रहती है

कई किताबें
चमगादड़ जैसी निश्चिन्त होकर
उलटी लटक जाती है
उग्र ऋषी जैसे
तप करते किताबों को
हाथ लगाने का धैर्य
किसी एकाध में ही होता है

रंगीन चिड़ियों जैसी
मुर्गे या बत्तख जैसी
झुण्ड में रखी किताबें
चहचहाती हैं
उन्हें हाथ में लेने वालों को
निहारती रहती हैं

किताबें तो
लुगदी बनकर
कागज बनी
पेड़ की टहनी
इसीलिए भटकते पंछियों के लिए
होती है एक जगह अपनी

बन भी सकते है
एक विराट ओपेरा की
अप्रत्याशित नांदी

१९.

किताबें
संदेसे के लिए भेजे गए
कोरे काग़ज़ के
पीछे आती हैं

धारा में डूब कर भी
किनारे पर आती हैं

दरवाज़ा बंद करने के लिए
टाटी बन जाती है

रोटी सेंकते वक़्त
अपने आप
होठों पर आती हैं

इस जनम में
लिखना रह गया
तो अगले जनम में
कोख में आती हैं

सात समुन्दर पार करके
किताबें
मुझसे मिलने जब तेज़ी से चली आती है
तब समूची पृथ्वी
लिली का पीला फूल बनकर
मुस्कुराती है

२०.

किताबें
स्थितप्रज्ञ जैसी
स्थितिशील

जैसे इनसानों की दुनिया में
ईश्वर
दख़लअंदाजी करता है

वैसे ही
किताबों की दुनिया में
इनसान आगंतुकी से
दस्तंदाजी करता रहता है

सामने के दो पाँव
ऊँचे उठाकर
पिछले दो पाँवों पर
खड़ी होनेवाली
जिराफ जैसी
गर्दन लम्बी करनेवाली
बकरियों को
किताबें
भरपूर पत्तियाँ
ज़िन्दगी भर
चरने देती है

मूल मराठी से अनुवाद : स्वयं कवि