भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
किधर जा रही हैं इधर आइएगा / चेतन दुबे 'अनिल'
Kavita Kosh से
किधर जा रही हैं इधर आइएगा।
न हुस्नो - अदा से यों भरमाइएगा।
जरा पास आओ, नजर तो मिलाओ
न घबराइएगा, न शरमाइएगा।
मुझे ढाई आखर ही हैं सबसे प्यारे
मुझे भोले बच्चे - सा बहलाइएगा।
फफोले पड़े हैं जो मेरे हृदय में
उन्हें अपने हाथों से सहलाइएगा ।
तुम्हारी कसम मैं तुम्हीं पर फिदा हूँ
जरा हाथ अपना इधर लाइएगा।
सनम! मैंने देखा कहाँ कितना पानी
न झूठी कसम इस तरह खाइएगा।
थमाकर शुभे! हाथ में हाथ अपना
न यों जाइएगा - न यों जाइएगा।