भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

किनकर ऊँची ऊँची महलिया, जरै मानिक दीप हे / अंगिका लोकगीत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

प्रसव-वेदना से व्याकुल स्त्री पहले तो सोचती है कि मेरे बाबा ने व्यर्थ ही मेरी शादी की, जिस कारण मुझे आज इस असह्य वेदना को सहना पड़ रहा है। परंतु पुत्रोत्पत्ति के बाद वह आनंदोल्लास में अपना सब दुःख भूल जाती है तथा ब्याह करने के कारण अपने बाबा को बधाई देने लगती है और सोचने लगती है-अगर आज मैं कुमारी होती, तो न बच्चे को गोद में ले पाती, न पीली साड़ी ही पहन पाती और न सोहर ही सुन सकती।’ वह अपनी सास के पैरों को छूकर प्रणाम करने और आशीर्वाद लेने का संकल्प करती है।

किनकर<ref>किसका</ref> ऊँची ऊँची महलिया, जरै मानिक दीप हे।
ललना रे, किनकर धानि मने मन सोचै हे॥1॥
दसरथ के ऊँची ऊँची महलिया, कि जरै मानिक दीप हे।
ललना रे, रामेचन्दर धानि, मने मन सोचै हे॥2॥
कथि लेली<ref>किसलिए</ref> बाबा मोर बिआहलनि, ससुर घर दिहलनि हे।
ललना रे, रहितहुँ बारी<ref>बाला; कन्या</ref> कुँआरी, दरद कहाँ पाबितहुँ<ref>पाती</ref> हे॥3॥
आधा राती अगली पहर राती, औरो दुपहर राती हे।
ललना रे, तखन<ref>तब; उसके बाद</ref> होरिला जनम लेल, महलिया उठल सोहर हे॥4॥
भले कैलनि बाबा मोर बिआहलनि, ससुर घ्ज्ञर दिहलनि हे।
ललना रे, रहितहुँ बारी कुँआरी, सोहर कैसे सुनितहुँ रे॥5॥
मनछेल<ref>मन था; मन के अनुकूल रंग वाली</ref> पियरी पहिरतहुँ, बालक गोद लिअतहुँ हे।
ललना रे, लागितहुँ सासुजी के गोड़, मन भर आसिक<ref>आशीष</ref> पाबितहुँ हे॥6॥

शब्दार्थ
<references/>