भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

किनारे पर रुक कर / अमित कुमार मल्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किनारे पर रुककर
सोचता हूँ
क्यो न बहा
मैं बहाव के साथ

जिसमे गति थी
निर्द्वन्दता थी
और साथ था वक्त

जिसमे मौज थी
मस्ती थी
और थी बेफिक्री

जहाँ किसी का सीना था मेरा नश्तर था
जहाँ मेरी पीठ थी किसी का चाकू था
न पाप था
न पुण्य था

बिना कवच के
दीवाल की आड़ में
टेक लेकर सुस्ताते हुए
सोचता हूँ
क्यों फिक्रमंद है
सैलाब में बहते हुए घरो को देखकर
किसी को चोंच मारते देखकर

पाप कुछ नही है
मन और कार्य की भिन्नता है
सच केवल एक है
चलना और बहना
और गति के साथ बहना।