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किनारे पर / हरीश करमचंदाणी
Kavita Kosh से
भूल तो नहीं गया मैं रचना
कुछ इस तरह जैसे सपने से जगा
और भूल गया सपना
नहीं पर ऐसा नहीं हुआ था
हुआ था वैसा ही
जैसा तैरना सीख जाने के बाद
ना तैरो बरसो बेशक
पर पानी में फेंको तो
चलने लगते हैं हाथ पाँव
पा ही जाती हैं देह किनारा
ठीक ऐसे ही
पहुँच गया
ना जाने कैसे
पास तुम्हारे