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किरणें कमसिन / गरिमा सक्सेना
Kavita Kosh से
कुहरे का गुब्बारा
छेद गई पिन
चीर निकल आईं हैं
किरणें कमसिन
कब से ही धुंध तले
पड़े थे उदास
खोया-खोया-सा था
मन का विश्वास
साहस ने काट लिये
पतझड़ के दिन
कलियाँ खिलने को हैं
देख नवल धूप
लड़कर ही पाया है
कोंपल ने रूप
अपने-से लगते हैं
अब ये पल-छिन
फगुनाया जीवन है
टेसू-सा लाल
पछुआ उड़ेल रही
धूल का गुलाल
आया संवत्सर का
पुनः जन्मदिन