भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

किरण वधू / मोहन अम्बर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऋतुपति तुझे देखने आया अरी सयानी चूनर ओढ़,
आँगन के गेंदों संग अब निर्वसन खेल मत किरण परी।
जमने लगी बदन पर तेरे अब गुलाब की मदनी आँख,
और उमग में शूल छेदता है तितली के कोमल पाँख,
सूरजमुखी रहा समझाता मंेहदी करती रही मना,
फिर भी तेरी बदनामी का शोर मचाती मौलसिरी,
आँगन के गेंदों संग अब निर्वसन खेल मत किरण परी।
धरा बहिन ने तुझे भेंटने काढ़ा फूलों वाला शाल,
सखियाँ नदियाँ घुंघरू बाँधे ब्याह नाचने सीखंे ताल,
गौतम बुद्ध हुआ लगता है तोड़ प्रतीक्षा प्रेमी चाँद,
शायद तेरी माँ उषा ने उसे सुना दी खरी-खरी,
आँगन के गेंदों संग अब निर्वसन खेल मत किरण परी।
गगन पिता ने चिंताओं में जगकर काटी दुख की रात,
देख दूब पर लिखी हुई है उसके घायल मन की बात,
द्वार-द्वार पर दस्तक देकर लौटा उसका पावन प्यार,
किन्तु कर्ज़ के आश्वासन की नहीं किसी ने पहल करी,
आँगन के गेंदों संग अब निर्वसन खेल मत किरण परी।