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किलकारी पर काल / अमरेन्द्र

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प्राणों पर ज्यों प्रेत खड़ा होµसोलह बारह चैदह
इतने-इतने अभिमन्यु का रुहिर व्यूह के भीतर
काँप गई सारी ही धरती क्षिति, जल, पावक थरथर
काँपेगी यह पूरी सदी ही क्या पन्द्रह या सोलह ।

अभी-अभी ही बच्चों के स्वप्नों से दिक् था हर्षित
देश-देश ने मिल कर बच्चों का इक देश गढ़ा था
नये भाग्य की उस रेखा को किसने नहीं पढ़ा था
शनि की छाया ज्योतिपुंज पर, राहू हर्षित-गर्वित ।

देव सन्न हैं किलकारी का इतना रक्त बहा है
रोयेंगे सदियों तक काॅपी, पेन्सिल, खेल-खिलौने
नहीं दिखेंगे वन-उपवन में शावक या मृगछौने
सूली की आँखों में आँसू, सागर काँप रहा है ।

सृष्टि-स्वर्ग अब कुछ भी बोले, कुछ भी बोले लोक
सौ कल्पों तक रोयेगा त्योहारों में यह शोक ।